|| भय ||
भय होता है ठीक मनुज में,जैसे छुरी में होती धार।
दोनों पक्ष है इस गुण के,बचाए कभी,कभी बने भार।
हां! सत्य ही भय अनावश्यक विनाश से हमें बचाता।
पर क्या निडर हो कोई जग में उन्नति नहीं है पाता ।
असमंजस है भारी यह,भय वरदान है या श्राप
विकसित करे मनुज इस गुण को, या भयी हो करे पश्चाताप
क्या भय से कभी-कभी विवेक जन्म नहीं लेता है।
क्या निर्भयता कभी-कभार विवेक नहीं हर लेता है।
युक्ति तो तभी निकलती है, ज्यों भय की वजह से रुक जाते।
फूलो का मार्ग बनाते हैं ,त्याग मार्ग जिसमें होते कांटे।
किसी कथन के मिथ्या होने का भय, ही उसे सत्य बनाता है।
किसी लक्ष्य के प्राप्त न होने का भय मनुष्य को शीघ्र उस तक पहुँचाता है।
प्राण,प्रतिष्ठा,भविष्य,समाज का पर आखिर भय ही तो है।
नाना प्रकार से आगे बढ़ाता , वह गुण भय ही तो है।
भय से मनुष्य सभ्य हुआ ,इसी कारण लिया मनु ने आशय।
क्या लुप्त नहीं हो जाता तब यदि वन में घूमता हो निर्भय।
विभिन्न भय से भिन्न चीजो का तब आविष्कार हुआ।
भय से हीं बढ़ा साम्राज्य,और सीमा का विस्तार हुआ।
जनता के दमन भय से हीं लोकतंत्र का आगाज हुआ।
कभी ताज था एक के ऊपर अब सबके ऊपर ताज हुआ।
पर आखिर ठहरा गुण मनु का,रूप है इसका एक और प्रचण्ड,
एक और पक्ष भी है भय का, जिसका विरोधी साथ मेरे पूरा गणतंत्र।
दलन,सहन या हो शोषण ,सब भय के जन्मे महाविकार।
अंधविश्वास बदल जाता विश्वास में,भय ही करवाता अत्याचार।
भय और बुद्धि की जमती नहीं, बुद्धि आती तो भय जाता है
बुद्धि केअभाव में भय न जाने क्या क्या विध्वंस दिखाता है।
यही उचित मार्ग है जीने का भय और बुद्धि दोनों को लेकर।
जब हित में हो भय, बनो भयी, अन्यथा विरोध करो निर्भयी होकरll