कोरोना का कहर
कुदरत ने कहर ढाया है कोरोना बनकर,
वरना इंसान तो बैठा था भगवान बनकर।
लोग बात–बात में कह बैठते हैं,
हमें फुरसत नहीं मरने की,
आज वही बैठा है जिंदा लाश बनकर।
सबको पता है यह संसार मिट्टी से बना है,
यहां मंदिर भी है और मस्ज़िद भी,
अस्पताल भी है और डॉक्टर भी, पर
सभी बैठे हैं यहां लाचार बनकर।
व्यस्त थे हम सभी जिंदगी की उलझनों में,
ऐसी विपदा आई की सभी बैठे हैं खुद उलझन बनकर।
इत्तेफाक ही कहिए की नेता निडर है और मीडिया भी,
इंसान आपस में ही डरने लगे हैं मिलने जुलने से,
क्योंकि कुदरत ने डराया हमें कोरोना बनकर।
हमें क्या पता हम इंसान है और जिंदगी के मुसाफिर भी,
लेकिन हमारा सफर रुक सा गया है कबाड़ का मशीन बनकर।
कितनी खूबसूरत थी जिंदगी, सैर और सर्राटे की,
आजकल रुक सी गई है घर के कैदखाने में रेलयात्री बनकर।
देखते हैं कितने कमजोर हुए हैं हम और हमारी सभ्यता,
यकीनन हम उबरेंगे कोरोना से एक सिपाही बनकर।
Rameshwar thakur