बंद हो रैगिंग का प्रचलन
गोपाल जालान
हमारे देश के शैक्षणिक जगत में ‘रैंगिग’ आज भी एक गंभीर समस्या बनी हुई है। देश के किसी न किसी हिस्से के उच्च शिक्षण संस्थान से हर साल रैंगिग संबंधी घटनाएं सामने आती रहती है। सरकार और शिक्षण संस्थानों के प्रबंधन द्वारा लाख कोशिशें करने के बावजूद रैंगिग के नाम पर नवागत विद्यार्थियों को शारीरिक व मानसिक रूप से उत्पीड़ित किए जाने की घटनाएं खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। शिक्षण संस्थानों में रैगिंग का प्रचलन बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। इसका शाब्दिक अर्थ होता हैं किसी को योजनाबद्ध रूप से सताना । अक्सर कॉलेज में नव प्रवेश पाने वाले छात्रों के साथ कॉलेज के वरिष्ठ छात्र प्रथम परिचय के तौर पर रैगिंग करते हैं। एक समय तक यह सामान्य परिचय प्रक्रिया थी, मगर आज यह कनिष्ठ छात्रों के लिए आतंक का पर्याय बन चुका है। हर साल देखा जाता है कि बच्चें जिस उत्साह के साथ किसी बड़े शिक्षण संस्थान में प्रवेश लेते हैंं, वह सारा उत्साह रैगिग के डर से छू-मंतर हो जाता है। कभी-कभी उन्हें रैगिंग के नाम पर इस तरह से प्रताड़ित किया जाता है कि शिक्षण संस्थान में नया दाखिला लेने वाले छात्र लंबे समय तक उससे उबर नहीं पाते । रैगिग के नाम पर बच्चों को कई बार तो बेहद शर्मनाक तथा अपमानजनक स्थिति से भी गुजरना पड़ता है। इससे उनके मन में कुंठा घर कर जाती हैं और वे आत्महत्या करने जैसा गलत कदम भी उठा लेते हैं। युवाओं को प्रताड़ित करने वाली यह रैगिंग प्रथा आज की उभरती हुई एक भयानक समस्या हैं, लिहाजा समय रहते इस पर गंभीरता से विचार-विमर्श पर एक इसे रोकने के लिए कठोर कानून बनाने की आवश्यकता हैं। कई छात्र संगठन एक लंबे अरसे से इसका विरोध करते आए हैं मगर उनकी बातों की तरफ कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया जाता हैं। यही वजह हैं कि आज बड़े स्तर पर शिक्षण संस्थानों में रैगिंग की समस्याओं से जुड़े मामले सामने आ रहे हैं। हमारे देश में रैंगिंग के इतिहास में वर्ष 2009-10 का सत्र बेहद खराब रहा, जिसमें सर्वाधिक संख्या में छात्रों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा अथवा उन्होंने कॉलेज आना ही छोड़ दिया। 22 साल गुजर जाने के बाद भी इस स्थिति में कोई खास बदवाल नहीं आया है। रैगिंग की पीड़ा वहीं युवा समझ सकता है, जिसने रैगिंग के नाम पर किए जाने वाले उत्पीड़न को भोगा है। कभी-कभी वे न तो कुछ बताने की स्थिति में होते हैं और न ही कुछ छिपाने की। इस प्रकार से यदि देखा जाए तो रैगिंग पर पूरी तरह से अंकुश लगाना न तो सरकार के बस की बात है न ही शिक्षण संस्थानों के बूते मेंहै। इसे तो सिर्फ शिक्षक व विद्यार्थी ही रोक सकते हैं, वह भी आपसी सद्भाव व सहयोग से। अब तक का अनुभव बताता है कि कठोरता और नियम कानून के दम पर रैगिंग को नहीं रोका जा सकता है। ऐसे में वरिष्ठ छात्र ही यदि आगे आकर संकल्प लें कि वे अपने कनिष्ठ विद्यार्थियों का रैगिंग न तो स्वंय करेंगे और न ही किसी को करने देंगे तो एक कामयाबी का मार्ग निकल सकता है। किसी भी शिक्षण संस्थान में शिक्षक एवं प्रबंधन के बाद यदि किसी का दबदबा होता है तो वह है वरिष्ठ छात्र। इसलिए शिक्षण संस्थान और वरिष्ठ छात्र इस कुप्रथा के खिलाफ खड़े हो जाए तो वर्षों से चले आ रहे रैगिंग के सिलसिले को खत्म किया जा सकता है। कॉलेज में आने वाले नवागतों से परिचय हो, परिचय के नाम पर हंसी-ठिठौली भी हो, कुछ सवाल-जवाब भी हो तो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन रैगिंग के नाम पर किसी बच्चे को यदि उत्पीड़ित किया जाता है, प्रताड़ित किया जाता है जिसकी वजह से वह मासूम आत्महत्या कर लें तो एक सभ्य समाज में ऐसी हरकत को कैसे गंवारा किया जा सकता है। लिहाजा ऐसी रैगिंग करने की इजाजत किसी भी हालत में नहीं दी जाती।